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जौनपुर इतिहास 1194 ई0 में कु तुबुद्दीन ऐबक ने मनदेव या मनदेय वततमान में जफराबाद पर आक्रमण कर ददया। तत् कालीन राजा उदयपाल को परादजत दकया और दीवानजीत दसिंह को सत् ता सौप कर बनारस की ओर चल ददया। 1389 ई0 में दफरोजशाह का पुत्र महमूदशाह गद्दी पर बैठा। उसने मदलक सरवर ख् वाजा को मिंत्री बनाया और बाद में 1393 ई0 में मदलक उसशकत की उपादि देकर कन् नौज से दबहार तक का क्षेत्र उसे सौप ददया । मदलक उसशकत ने जौनपुर को राजिानी बनाया और इटावा से बिंगाल तक तथा दवन् ियाचल से नेपाल तक अपना प्रभुत् व स् थादपत कर दलया। शकी विंश के सिंस् थापक मदलक उसशकत की मृत् यु1398 ई0 में हो गयी। जौनपुर की गद्दी पर उसका दत् तक पुत्र सैयद मुबारकशाह बैठा। उसके बाद उसका छोटा भाई इब्रादहमशाह गद्दी पर बैठा। इब्रादहमशाह दनपुण व कु शल शासक रहा। उसने दहन् दुओिं के साथ सद् भाव की नीदत पर कायत दकया। शकीकाल में जौनपुर में अनेकोिं भव् य भवनोिं, मस्स् जदोिं व मकबरोिं का दनतमाण हुआ। दफरोजशाह ने 1393 ई0 में अटाला मस्स् जद की नीिंव डाली थी, लेदकन 1408 ई0 में इब्रादहम शाह ने पूरा दकया। इब्रादहम शाह ने जामा मस्स् जद एविं बडी मस्स् जद का दनतमाण प्रारम् भ कराया, इसे हूसेन शाह ने पूरा दकया। दशक्षा, सिंस्कृदत , सिंगीत, कला और सादहत् य के क्षेत्र में अपना महत् वपूणत स् थान रखने वाले जनपद जौनपुर में दहन् दू- मुस्स् लम साम् प्रदादयक सद् भाव का जो अनूठा स् वरूप शकीकाल में दवद्यमान रहा है, उसकी गिंि आज भी दवद्यमान है। 1484 ई0 से 1525 ई0 तक लोदी विंश का जौनपुर की गद्दी पर आदिपत् य रहा है। 1526 ई0 में ददल् ली पर बाबर ने आक्रमण कर ददया और पानीपत के मैदान में इब्रादहम लोदी को परास् त कर मार डाला। जौनपुर पर दवजय पाने के दलये बाबर ने अपने पुत्र हुमायू को भेजा दजसने जौनपुर के शासक को परास् त कर ददया। 1556 ई0 में हुमायूिं की मृत् यु हो गयी तो 18 वर्त की अवस् था में उसका पुत्र जलालुद्दीन मोहम् मद अकबर गद्दी पर बैठा। 1567 ई0 में जब अली कु ली खॉ ने दवद्रोह कर ददया तो अकबर ने स् वयिं चढाई दकया और युद्ध में अली कु ली खॉ मारा गया। अकबर जौनपुर आया और यहॉ काफी ददनो तक दनवास दकया। तत् पश् चात सरदार मुनीम खॉ को शासक बनाकर वापस चला गया। अकबर के ही शासनकाल में शाही पुल जौनपुर का दनतमाण हुआ। पौरादणक काल के बाद दवद्वतजन जौनपुर को चन् द्रगुप् त दवक्रमाददत् य के काल से जोडते हुये ‘मनइच’ तक लाते है और तथ् य है दक यहॉ बौद्ध प्रभाव रहा है। भर एविं शोइरी, गूजर, प्रदतहार, गहरवार भी अदिपदत रहे है। यहॉ मोहम् मद गजनवी के हटने के बाद 11 वीिं सदी मोहम् मद गोरी ज्ञानचन् द सिंघर्त में गोरी द्वारा जीत एविं अरूनी में खजाना भेजाना, 1321 ई0 में गयासुद्दीन तुगलक द्वारा अपने पुत्र जफर खॉ तुगलक की जौनपुर में दनयुस्‍ त उसको वततमान शहर के दनतमाण से जोडती है। डेढ शताब् दी तक मुगल सल् तनत का अिंग रहने के बाद 1722 ई0 में जौनपुर अवि के नवाब को सौपा गया। 1775 ई0 से 1788 ई0 तक यह बनारस के अिीन रहा और बाद में रेजीडेन् ट डेकना के साथ रहा। 1818 ई0 में जौनपुर के अिीन आजमगढ को भी कर ददया गया, लेदकन 1822 ई0 एविं 1830 ई0 में दवभादजत कर अलग कर ददया गया। रुति के स्थान


ग्राम में दचलदबल के पेड में बािंिकर गोरी सरकार द्वारा गोली मारे गये रामानन् द चौहान जैसे शहीदोिं का जीवन पररचय दलखा गया है। िार अांगुल की मस्‍ जद नगर के मुहल् ला पान दरीबा में स्स् थत शकी सम्राट इब्रादहम शाह के शासन काल में बनवायी गयी थी। इब्रादहम शाह के भाई मदलक खादलस और दम लक मुस्ख लस द्वारा उस समय के प्रदसद्ध सूफी सिंत शेख उस् मान दशराजी की शान में सन् 1417 में बनवायी गयी इस मस्स् जद के प्रवेश द्वारा पर लगे एक पत् थर की दवशेर्ता थी दक बच् चा, बूढा या जवाना चाहे जो भी नापे वह चार अिंगुल का ही रहता था। इस दम स् जद का मुख् य भाग काफी भव् य है। बीच में एक बडा गुम् बद और दोनो ओर दो छोटे- छोटे गुम् बद है। वततमान में इसमें मीनारे नही है। इसकी छत 30 फीट के 10 खम् भो पर दटकी हुई है और इसका दसिंह द्वार 67 फीट चौडा है। सन् 1495 में हुसेन शाह शकी को पराभूत करने के बाद दसकन् दर लोदी ने जौनपुर में जो तोड फोड करायी थी यह मस्स् जद भी उसका दशकार थी। वाराणसी इतिहास वाराणसी सिंसार के प्राचीनतम बसे शहरोिं में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रदसद्ध नगर है। इसे ‘बनारस’ और ‘काशी’ भी कहते हैं। दहन्दू िमत में सवातदिक पदवत्र नगरोिं में से एक माना जाता है और इसे अदवमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एविं जैन िमत में भी इसे पदवत्र माना जाता है।वाराणसी की सिंस्कृ दत का गिंगा नदी, श्री कशी दवश्वनाथ मस्िर एविं इसके िादमतक महत्त्व से अटू ट ररश्ता है। ये शहर सहस्ोिं वर्ों से भारत का, दवशेर्कर उत्तर भारत का सािंस्कृ दतक एविं िादमतक के न्द्र रहा है। वाराणसी को प्रायः ‘मिंददरोिं का शहर’, ‘भारत की िादमतक राजिानी’, ‘भगवान दशव की नगरी’, ‘दीपोिं का शहर’, ‘ज्ञान नगरी’ आदद दवशेर्णोिं से सिंबोदित दकया जाता है। प्रदसद्ध अमरीकी लेखक माकत ट्वेन दलखते हैं: “बनारस इदतहास से भी पुरातन है, परिंपराओिं से पुराना है, दकिं वदिंदतयोिं (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस सिंग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।” दहन्दुस्तानी शास्त्रीय सिंगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एविं दवकदसत हुआ है। भारत के कई दाशतदनक, कदव, लेखक, सिंगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, दजनमें कबीर, वल्लभाचायत, रदवदास, स्वामी रामानिंद, त्रैलिंग स्वामी, दशवानि गोस्वामी, मुिंशी प्रेमचिंद, जयशिंकर प्रसाद, आचायत रामचिंद्र शुक्ल, पिंदडत रदव शिंकर, दगररजा देवी, पिंदडत हरर प्रसाद चौरदसया एविं उस्ताद दबस्िल्लाह खािं आदद कु छ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने दहन्दू िमत का परम-पूज्य ग्रिंथ रामचररतमानस यहीिं दलखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीिं दनकट ही सारनाथ में ददया था। वाराणसी में चार बडे दवश्वदवद्यालय स्ित हैं: बनारस दहन्दू दवश्वदवद्यालय, महात्मा गािंिी काशी दवद्यापीठ, सेंटर ल इिंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर दटबेदटयन स्टडीज़ और सिंपूणातनि सिंस्कृ त दवश्वदवद्यालय। यहािं के दनवासी मुख्यतः कादशका भोजपुरी बोलते हैं, जो दहिी की ही एक बोली है।

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